Thursday, September 22, 2016

सुन्दर सुर सजाने को साज बनाता हूँ
नौसिखिये परिंदों को बाज बनाता हूँ.
चुपचाप सुनता हूँ शिकायतें सबकी,
तब दुनिया बदलने की आवाज बनाता हूँ.
समंदर तो परखता है हौसले कश्तियो के,
और मैं डूबती कश्तियो को जहाज बनाता हूँ.
बनाए चाहे चांद पर कोई बुर्ज ए खलीफा,
अरे मैं तो कच्ची ईंटों से ही ताज बनाता हूँ...


फलक की चाह मे, जमीं से दूर हुआ मैं
अपने किए फै़सलों से ही मजबूर हुआ मैं
मैं अपने घर का कभी इक रोशन चराग था
सितारों की इस दुनिया में बेनूर हुआ मैं।

Friday, September 2, 2016

इस जमाने को फिर से अच्छा बना दे,
हे प्रभु, हमें फिर से बच्चा बना दे।

दिलों को मासूम, नीयतों को सच्चा बना दे,
हे प्रभु, हमें फिर से बच्चा बना दे।

सपनों मे उड़ना,  सितारों को छूना,
परियों के शहर का फिर से रस्ता बना दे,
हे प्रभु, हमें फिर से बच्चा बना दे।

Thursday, September 1, 2016

जाने क्या ढूँढने खोला था
उन बंद दरवाजों को,
अरसा बीत गया सुने,
उन धुंधली आवाजों को,
यादों के सूखे बागों में,
जैसे एक गुलाब खिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है........

कांच के एक डिब्बे में कैद,
खरोचों वाले कुछ कंचे,
कुछ आज़ाद इमली के दाने,
इधर उधर बिखरे हुए,
मटके का इक चौकोर,
लाल टुकड़ा,
पड़ा बेकार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है......

एक भूरे रंग की पुरानी कॉपी,
नीली लकीरों वाली,
कुछ बहे हुए नीले अक्षर
उन पुराने भूरे पन्नों में,
स्टील के जंग लगे, शार्पनर में,पेंसिल का,
एक छोटा टुकड़ा गिरफ्तार मिला है।
आज मुझे उस बूढी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है...

बदन पर मिट्टी लपेटे
एक गेंद पड़ी है,
लकड़ी का एक बल्ला
भी है,
जो नीचे से छिला
छिला है,
बचपन फिर से आकर
मानो साकार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है.........

एक के ऊपर एक पड़े,
माचिस के कुछ खाली डिब्बे,
बुना हुआ एक
फटा वो लाल स्वेटर,
जो अब नीला नीला है,
पीला पड़ चुका झुर्रियों वाला
एक अखबार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है.........

गत्ते का एक चश्मा है,
पीली प्लास्टिक वाला,
चंद खाली लिफ़ाफ़े,
बड़ी बड़ी डाक टिकिटों वाले,
उन खाली पड़े लिफाफों में भी,
छुपा हुआ एक इंतज़ार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है..........

मेरे चार दिन रोने के बाद,
पापा ने जो दी थी,
वो रुकी हुई घड़ी,
दादाजी की डायरी
से चुराई गयी,
वो सूखी स्याही
वाला कलम,मिला है,
दादी ने जो पहले जन्मदिन पे
दिया था वो श्रृंगार
मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है........

कई बरस बीत गए
आज यूँ महसूस हुआ,
रिश्तों को निभाने की
दौड़ में
भूल गये थे जिसे,
यूँ लगा जैसे वही बिछड़ा
पुराना यार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है..........

"आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
अपना पुराना इतवार मिला
 है....... !"
जाने क्या ढूँढने खोला था
उन बंद दरवाजों को,
अरसा बीत गया सुने,
उन धुंधली आवाजों को,
यादों के सूखे बागों में,
जैसे एक गुलाब खिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है........

कांच के एक डिब्बे में कैद,
खरोचों वाले कुछ कंचे,
कुछ आज़ाद इमली के दाने,
इधर उधर बिखरे हुए,
मटके का इक चौकोर,
लाल टुकड़ा,
पड़ा बेकार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है......

एक भूरे रंग की पुरानी कॉपी,
नीली लकीरों वाली,
कुछ बहे हुए नीले अक्षर
उन पुराने भूरे पन्नों में,
स्टील के जंग लगे, शार्पनर में,पेंसिल का,
एक छोटा टुकड़ा गिरफ्तार मिला है।
आज मुझे उस बूढी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है...

बदन पर मिट्टी लपेटे
एक गेंद पड़ी है,
लकड़ी का एक बल्ला
भी है,
जो नीचे से छिला
छिला है,
बचपन फिर से आकर
मानो साकार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है.........

एक के ऊपर एक पड़े,
माचिस के कुछ खाली डिब्बे,
बुना हुआ एक
फटा वो लाल स्वेटर,
जो अब नीला नीला है,
पीला पड़ चुका झुर्रियों वाला
एक अखबार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है.........

गत्ते का एक चश्मा है,
पीली प्लास्टिक वाला,
चंद खाली लिफ़ाफ़े,
बड़ी बड़ी डाक टिकिटों वाले,
उन खाली पड़े लिफाफों में भी,
छुपा हुआ एक इंतज़ार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है..........

मेरे चार दिन रोने के बाद,
पापा ने जो दी थी,
वो रुकी हुई घड़ी,
दादाजी की डायरी
से चुराई गयी,
वो सूखी स्याही
वाला कलम,मिला है,
दादी ने जो पहले जन्मदिन पे
दिया था वो श्रृंगार
मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है........

कई बरस बीत गए
आज यूँ महसूस हुआ,
रिश्तों को निभाने की
दौड़ में
भूल गये थे जिसे,
यूँ लगा जैसे वही बिछड़ा
पुराना यार मिला है।
आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
पुराना इतवार मिला
है..........

"आज मुझे उस बूढ़ी अलमारी के अन्दर,
अपना पुराना इतवार मिला
 है....... !"
क्या खूब कहा है-

"आसमां में मत दूंढ अपने सपनो को,
सपनो के लिए तो ज़मी जरूरी है,

सब कुछ मिल जाए तो जीने का क्या मज़ा,
जीने के लिये एक कमी भी जरूरी है".....🔅⚜
✨ *जीत पक्की है* ✨

कुछ करना है, तो डटकर चल।
थोड़ा दुनियां से हटकर चल।
लीक पर तो सभी चल लेते है,
कभी इतिहास को पलटकर चल।
बिना काम के मुकाम कैसा?
बिना मेहनत के, दाम कैसा?
जब तक ना हाँसिल हो मंज़िल
तो राह में, राही आराम कैसा?
अर्जुन सा, निशाना रख, मन में,
ना कोई बहाना रख।
जो लक्ष्य सामने है,
बस उसी पे अपना ठिकाना रख,
सोच मत, साकार कर,
अपने कर्मो से प्यार कर।
मिलेंगा तेरी मेहनत का फल,
किसी और का ना इंतज़ार कर।
जो चले थे अकेले
उनके पीछे आज मेले हैं।
जो करते रहे इंतज़ार उनकी
 जिंदगी में आज भी झमेले है!

चलो एक कदम आगे बढ़ाएं
जीत निश्चित हो तो,
कायर भी जंग लड़ लेते है...
बहादुर तो वो लोग है ,
जो हार निश्चित हो फिर भी मैदान नहीं छोड़ते...
लहरों को शांत देख कर ये न समझना की समंदर में रवानी नहीं है..
जब भी उठेंगे तूफान बन के उठेंगे, अभी उठने की ठानी नहीं है
"आज गुमनाम हूँ तो फासला  रख रखा है  सबने मुझसे.....

कल जब मशहूर हो जाऊँ तो कोई रिश्ता मत निकाल लेना मुझसे...."

Tuesday, August 16, 2016

दुश्मन के खेमे में चल रही थी मेरे क़त्ल की साजिश,
मैं पंहुचा तो वो बोले " यार तेरी उम्र बहुत लंबी है"।।⁠⁠⁠⁠
न करो जुर्रत....
किसी के वक़्त पे हंसने की कभी....

ये वक़्त है जनाब....
चेहरे याद रखता है....
* आधुनिक सच   *

मियां-बीबी दोनों मिल खूब कमाते हैं
तीस लाख का पैकेज दोनों ही पाते हैं
सुबह आठ बजे नौकरियों परजाते हैं
रात ग्यारह तक ही वापिस आते हैं

अपने परिवारिक रिश्तों से कतराते हैं
अकेले रह कर वह  कैरियर  बनाते हैं
कोई कुछ मांग न ले वो मुंह छुपाते हैं
भीड़ में रहकर भी अकेले रह जाते हैं

मोटे वेतन की नौकरी छोड़ नहीं पाते हैं
अपने नन्हे मुन्ने को पाल  नहीं पाते हैं
फुल टाइम की मेड ऐजेंसी से लाते  हैं
उसी के जिम्मे वो बच्चा छोड़ जाते हैं

परिवार को उनका बच्चा नहीं जानता है
केवल आया'आंटी को ही पहचानता है
दादा -दादी, नाना-नानी कौन होते  है?
अनजान है सबसे किसी को न मानता है

आया ही नहलाती है आया ही खिलाती है
टिफिन भी रोज़ रोज़ आया ही बनाती है
यूनिफार्म पहना के स्कूल कैब में बिठाती है
छुट्टी के बाद कैब से आया ही घर लाती है

नींद जब आती है तो आया ही सुलाती है
जैसी भी उसको आती है लोरी सुनाती है
उसे सुलाने में अक्सर वो भी सो जाती है
कभी जब मचलता है तो टीवी दिखाती है

जो टीचर मैम बताती है वही वो मानता है
देसी खाना छोड कर पीजा बर्गर खाता  है
वीक ऐन्ड पर मौल में पिकनिक मनाता है
संडे की छुट्टी मौम-डैड के  संग बिताता है

वक्त नहीं रुकता है तेजी से गुजर जाता है
वह स्कूल से निकल के कालेज में आता है
कान्वेन्ट में पढ़ने पर इंडिया कहाँ भाता है
आगे पढाई करने वह विदेश चला जाता है

वहाँ नये दोस्त बनते हैं उनमें रम जाता है
मां-बाप के पैसों से ही खर्चा चलाता है
धीरे-धीरे वहीं की संस्कृति में रंग जाता है
मौम डैड से रिश्ता पैसों का रह जाता है

कुछ दिन में उसे काम वहीं मिल जाता है
जीवन साथी शीघ्र ढूंढ वहीं बस जाता है
माँ बाप ने जो देखा ख्वाब वो टूट जाता है
बेटे के दिमाग में भी कैरियर रह जाता है

बुढ़ापे में माँ-बाप अब अकेले रह जाते हैं
जिनकी अनदेखी की उनसे आँखें चुराते हैं
क्यों इतना कमाया ये सोच के पछताते हैं
घुट घुट कर जीते हैं खुद से भी शरमाते हैं

हाथ पैर ढीले हो जाते, चलने में दुख पाते हैं
दाढ़- दाँत गिर जाते, मोटे चश्मे लग जाते हैं
कमर भी झुक जाती, कान नहीं सुन पाते हैं
वृद्धाश्रम में दाखिल हो, जिंदा ही मर जाते हैं

सोचना की बच्चे अपने लिए पैदा कर रहे हो या विदेश की सेवा के लिए।

बेटा एडिलेड में, बेटी है न्यूयार्क।
ब्राईट बच्चों के लिए, हुआ बुढ़ापा डार्क।

बेटा डालर में बंधा, सात समन्दर पार।
चिता जलाने बाप की, गए पड़ोसी चार।

ऑन लाईन पर हो गए, सारे लाड़ दुलार।
दुनियां छोटी हो गई, रिश्ते हैं बीमार।

बूढ़ा-बूढ़ी आँख में, भरते खारा नीर।
हरिद्वार के घाट की, सिडनी में तकदीर।
। आदमी कीऔकात ।

एक माचिस की तिल्ली,
एक घी का लोटा,
लकड़ियों के ढेर पे
कुछ घण्टे में राख.....
बस इतनी-सी है
आदमी की औकात !!!!

एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया ,
अपनी सारी ज़िन्दगी ,
परिवार के नाम कर गया।
कहीं रोने की सुगबुगाहट  ,
तो कहीं फुसफुसाहट ,
....अरे जल्दी ले जाओ
कौन रोयेगा सारी रात...
बस इतनी-सी है
आदमी की औकात!!!!

मरने के बाद नीचे देखा ,
नज़ारे नज़र आ रहे थे,
मेरी मौत पे .....
कुछ लोग ज़बरदस्त,
तो कुछ  ज़बरदस्ती
रो रहे थे।
नहीं रहा.. ........चला गया..........
चार दिन करेंगे बात.........
बस इतनी-सी है
आदमी की औकात!!!!!

बेटा अच्छी तस्वीर बनवायेगा ,
सामने अगरबत्ती जलायेगा ,
खुश्बुदार फूलों की माला होगी ......
अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी.........
बाद में उस तस्वीर पे ,
जाले भी कौन करेगा साफ़...
बस इतनी-सी है
आदमी की औकात !!!!!!

जिन्दगी भर ,
मेरा- मेरा- मेरा  किया....
अपने लिए कम ,
अपनों के लिए ज्यादा जीया ...
कोई न देगा साथ...जायेगा खाली हाथ....
क्या तिनका
ले जाने की भी
 है हमारी औकात   ???

हम चिंतन करें .........
क्या है हमारी औकात ???
तेरे पास भी कम नहीं, मेरे पास भी बहुत हैं,
ये परेशानियाँ आजकल फुरसत में बहुत हैं ……
मँज़िले बड़ी ज़िद्दी होती हैँ।
हासिल कहाँ नसीब से होती हैं।
मगर वहाँ तूफान भी हार जाते हैं।
जहाँ कश्तियाँ ज़िद पर अड़ी होती हैँ l
सुकून की एक रात भी, शायद नहीँ जिँदगी मेँ,
ख्वाहिशोँ को सुलाओ तो,यादेँ जाग जाती है....!!
पसीने की स्याही से लिखते है जो अपने इरादों को,
उनके मुकद्दर के पन्ने कभी कोरे नही होते ।
समेट कर रखे ये कोरे पन्ने एक रोज
बिखर जाएंगे …
जिंदगी के मेरे किस्से खामोश रहकर
भी बयां हो जाएंगे…
चौराहे पर चाय वाले ने हाथ में गिलास थमाते हुए पूछा......
"चाय के साथ क्या लोगे साहब"?
ज़ुबाँ पे लब्ज आते आते रह गए
"पुराने यार मिलेंगे क्या"???

जिम्मेदारियां मजबूर कर देती हैं अपना शहर छोड़ने को,
वरना कौन अपनी गली मे जीना नहीं चाहता.....

हसरतें आज भी खत लिखती हैं मुझे,
पर मैं अब पुराने पते पर नहीं रहता ....।
सोचता हूँ कुछ दोस्तों पर मुकदमा कर दूँ...!
इसी बहाने  तारीखों पर मुलाक़ात तो होगी....
दर्द की बारिश में हम अकेले ही थे,
जब बरसी खुशियाँ, ना जाने भीड़ कहाँ से आ गयी।
ये लकीरें, ये नसीब, ये किस्मत सब फ़रेब के आईनें हैं,
हाथों में तेरा हाथ होने से ही मुकम्मल ज़िंदगी के मायने हैं.
मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी, कुछ अनमोल लोगो से रिश्ता रखता हूँ...!⁠⁠⁠⁠
काफी दिनों से
कोई नया जख्म नहीं मिला...

पता तो करो..
"अपने" हैं कहां ????
जिम्मेदारिया ओढ़ के निकलता हू घर से आजकल...
वरना शौक तो आज भी है बारिशो में भीगने का....
कितना और बदलूँ खुद को जीने के लिए,
ऐ जिंदगी , थोड़ा सा तो मुझको बाकी रहने दे मुझ में....
रुकावटें जिन्दा इन्सान के हिस्से में ही आती हैं,
वरना मुर्दे के लिये तो सभी रास्ता छोड़ देते हैं।
मुझे इतनी "फुर्सत" कहाँ की में "तकदीर" का लिखा देखूं ..........

बस बेटी की "मुस्कराहट" देखकर समझ जाता हूँ की "मेरी तकदीर" बुलंद है।
महफ़िल में हँसाना मेरा मिज़ाज़ बन गए,
तन्हाई में रोना एक राज़ बन गए,
दिल के दर्द को चेहरे से ज़ाहिर न होने दिया,
यही मेरे जीने का अंदाज़ बन गए।
हरिवंशराय बच्चनजी की सुन्दर कविता

अगर बिकी तेरी दोस्ती
तो पहले ख़रीददार हम होंगे ...

तुझे ख़बर न होगी तेरी क़ीमत
पर तुझे पाकर सबसे अमीर हम होंगे

दोस्त साथ हो तो रोने में भी शान है
दोस्त ना हो तो महफिल भी श्मशान है

सारा खेल दोस्ती का है ऐ मेरे दोस्त
वरना जनाजा और बारात एक ही समान है

"काश फिर मिलने की वजह मिल जाए!
"साथ जितना भी बिताया वो पल मिल जाए!
"चलो अपनी अपनी आँखें बंद कर लें!
"क्या पता ख़्वाबों में गुज़रा हुआ कल मिल जाए!


"क्यूँ  मुश्किलों में  साथ  देते  हैं  "दोस्त"
"क्यूँ  गम  को  बाँट लेते  हैं "दोस्त"
"न  रिश्ता  खून  का  न  रिवाज  से  बंधा  है!
"फिर  भी  ज़िन्दगी  भर का साथ  देते  हैं  "दोस्त"।

Happy Friendship Day...
क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला ;
 ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला;

 तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने;
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला;

 तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर;
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला।
Beautiful Poem written by Gurudev Ravindra Nath Tagore

जहाँ उड़ता फिरे मन बेख़ौफ़ ,
और सिर हो शान से उठा हुआ,
जहाँ इल्म हो सबके लिए बेरोकटोक,
बिना शर्त रखा हुआ,
जहाँ घर की चौखट सी,
छोटी सरहदों में न बाँटा हो जहाँ,
जहाँ सच से सराबोर हो हर बयां,
जहाँ बाजुएं बिना थके लगी रहे,
कुछ मुकम्मल तराशने।
जहाँ सही सोच को धुंधला न पाएं,
उदास मुर्दा रवायतें।
जहाँ दिलो दिमाग तलाशे,
नए ख्याल और उन्हें अंजाम दें,
ऐसी आज़ादी के जन्नत में,
ऐ खुदा, मेरे वतन की हो नयी सुबह ।

जय हिंद, जय भारत।।।
मेरे शहर मे अगर तुम जाओ, मेरा इतना सा काम कर देना
मेरे घर के चौबारे में कंगूरो पर देखना,
हो सकता है दरवाजे की चौखटों पर टंगा होगा
या फिर किसी आले में धूल से सना होगा,
या शायद किसी पतंग की डोर के गुच्छे में उलझा हो,
नहीं तो देखना तालाब के मुहाने से पत्थर फैंकता होगा
ढूंढना सड़क के नीचे कुचली हुई कच्ची पगडंडियो पर,
अगर फिर भी ना मिले कहीं तो मां की गोद में होगा
या पिताजी की उंगली पकड़ कर टहलता होगा
मेरा बचपन कहीं मिले तो बस इतना सा कह देना
मै इतना जानता हूं तुम फिर कभी ना लौटोगे
पर कहना कि मै तुझे भूला नहीं हूं
जब से दीवार हो गयी बूढी
इश्तिहारों के काम आती है
नींद में इतने लग गए पैबंद
एक आहट उधेड़ जाती है
- शबाब मेरठी
दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है
सच कहता हूं सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है।
उम्र भर दोस्त लेकिन साथ चलते हैं।
दिए जलते हैं फूल खिलते हैं, 
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते हैं।
मेरे हौसलों को यूँ चंद लम्हों से ना नापो दोस्तों ,
हौसलों कि उड़ान अभी बाकी है ,
माना कि टूटा हुआ हूँ इस पल मैं
पर हौसलों का तूफ़ान अभी है ,
छू लूँगा आसमां कि उचाइयां भी
पंखों पंखों में मेरे बस जान अभी आना बाकि है
क्या खूब लिखा है किसी ने
गरीबी से उठा हूँ,गरीबी का दर्द जानता हूँ,
आसमाँ से ज्यादा जमीं की कद्र जानता हूँ।
लचीला पेड़ था जो झेल गया आँधिया,
मैं मगरूर दरख्तों का हश्र जानता हूँ।
मजदूर से अफसर बनना आसाँ नहीं होता,
जिन्दगी में कितना जरुरी है सब्र जानता हूँ।
मेहनत बढ़ी तो किस्मत भी बढ़ चली,
छालों में छिपी लकीरों का असर जानता हूँ।
सब कुछ पाया पर अपना कुछ नहीं माना,
क्योंकि आखिरी ठिकाना मैं अपनी कब्र जानता हूँ।।
बड़े खुशनसीब होते हैं वो जिन्हें दुनिया पहचानती है
और एक हम हैं ,जिसे आईने ने पहचानने से इंकार कर दिया
आज जब मैं वर्तमान में था
पर ध्यान भविष्य में था
भविष्य जो अभी है ही नहीं
भविष्य जो आना है अभी ,
बस पूरा ध्यान, पूरा ज्ञान
उसी पर है लगा , पर क्या
भविष्य होगा वैसा ही जैसा
हम गुन रहे हैं अभी ,भविष्य
तो फंसा है वक़्त के हाथों कहीं
उसे तो होना ही है वैसा ,वक़्त
चाहेगा उसे जैसा ही ,पर हम
भविष्य के चक्कर में ,जो हमारे
हाथों में है ही नहीं , खो रहे हम
उस पल को भी जिसमें बदल सकते
थे , वक़्त को भी हम , जी नहीं पा
रहे वर्तमान को एक पल , और
उलझे पड़े भविष्य के जाल में
और खोते जा रहे वर्तमान का हर पल
वो फिर लौट आये थे मेरी पनाहों में
गमो को भी तो मेरे बिना चैन कहाँ
उद्वेग भावनाओं का बढ़ता ही जा है
मंथन विचारों का बढ़ता ही जा रहा है
मंथन विचारों के गरल सारा अंदर का सभी
बाहर निकलता ही जा रहा है , होता जा रहा
सब कुछ खाली सा जैसे , तन का विकार सारा
मन से निकला जा रहा है , होता जा रहा निर्मल
तन और मन सभी , शरीर जैसे हवा में उड़ता जा रहा है
जाना चाहता हूँ जैसे पार क्षितिज के कहीं
खो कर वाह्य सभी बस तुझमें विलुप्त सा
होता जा रहा हूँ , छूटता जा रहा है नश्वर सभी
मैं तो जैसे ब्रम्ह होता जा रहा हूँ
नहीं चाहता निकलना इस अनुभूति से कभी
विलुप्त सा हो गया मैं , ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं
अब तो जीना चाहता हूँ भी बस इसी भ्रम में कि बस
ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं , ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं


Tuesday, February 23, 2016

मेरी खामोशियों को मेरी कमजोरी न समझो दोस्तों,
हम अपनी कारगुजारियों का बखान नहीं करते,
जब तक हम आलस में बैठे हैं,
खुले में घूम लो तुम भी,
शेर आराम करते वक़्त शिकार नहीं किया करते....