Tuesday, August 28, 2007

शायद मैं ही था

कभी- कभी
मै खुद नही समझ पाता कि
मै कौन हूँ,
क्या हूँ ।

गीली मिट्टी में
घरौंदा बनाने मे उलझा,
मिट्टी पर कदमों
के निशान छोडकर,
तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने पर,
अपना मन सँभाले,
उन कदमों पर कदम धरता,
हाँफता- दौडता तुम्हे ढूँढता
शायद मैं ही था ।

या तुम्हारी स्मृति मे खोया
मै ही हूँ
।दरवाज़े की ऒट मे खडा
उदास, निराश,
निर्निमेष पलकों से झाँकता भी
मैं ही था॰॰॰॰॰॰