Tuesday, February 23, 2016

मेरी खामोशियों को मेरी कमजोरी न समझो दोस्तों,
हम अपनी कारगुजारियों का बखान नहीं करते,
जब तक हम आलस में बैठे हैं,
खुले में घूम लो तुम भी,
शेर आराम करते वक़्त शिकार नहीं किया करते....

श्री अटल बिहारी वाजपयी जी की एक अनमोल रचना - पूरी अखा जीवन में नहीं लिख सकता

बाधाएं आती हैं आएं,
घिरे प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसे यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते हँसते,
आग लगाकर जलना होगा,
कदम मिलकर चलना होगा... 

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा
...

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा...


सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा,
क़दम मिलाकर चलना होगा...

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा
क़दम मिलाकर चलना होगा...
ये  पेड़ ये पत्ते ये शाख़ाएँ भी परेशान हो जाएं,
अगर परिंदे भी हिन्दू मुस्लमान हो जाएं। ..... 
सूखे मेवे भी ये देख कर हैरान हो जाएं,
न जाने कब नारियल हिन्दू औ खजूर मुस्लमान हो जाएं,..... 
न मस्जिद को जानते हैं, न शिवालों को जानते  हैं,
जो भूखे पेट होते हैं, वह सिर्फ निवाले जानते हैं..... 
मेरा यही अन्दाज ज़माने को खलता है,
की मेरा चिराग हवा के खिलाफ कयं जलता है....... 
में अमन पसंद हूँ, मेरे शहर में दंगे रहने दो,
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर तिरंगा रहने दो... 
फ़िक्र ऐ रोज़गार ने फासले बढ़ा दिए वरना,
सब यार एक साथ थे, अभी कल की बात है....... 

For Three Musketeers....

किनारो पर सागर के ख़ज़ाने नहीं आते,
फिर जीवन में दोस्त अच्छे नहीं आते,
जी लो इन पलों को हँस के जनाब,
फिर लौट के दोस्ती के ज़माने नहीं आते...... 
ये वफ़ा की बातें तो उन दिनों की हैं........
जब लोग सच्चे और उनके मकान कच्चे हुआ करते थे। 
नसीब में लिखा तो मिल ही जायेगा ऐ खुदा.....
देना है तो वो दे जो तक़दीर में न हो... 
रहो जमीं पे मगर आसमां का ख़्वाब रखो,
तुम अपनी सोच को हर वक़्त लाजवाब रखो,
खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी,
तुम आपने हाथ में किरदार की किताब रखो,
उभर रहा जो सूरज तो धुप निकलेगी,
उजालों में रहो मत, धुंध का हिसाब रखो,
मिले तो ऐसे की कोई न भूल पाये तुम्हें,
महक वफ़ा के रखो और बेहिसाब रखो.... 
मुश्किलों से कहो, की इक दिन छुट्टी दें मुझे,
की इनके कारोबार में भी इतवार होना चाहिए..... 
शायद मुझे निकल पर पछता रहे होगे आप,
महफ़िल में इस ख्याल से फिर आ गया हूँ में. 
एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द की वजह,
मोहब्बत भी सुकूँ वालों को बड़ी तकलीफ देती है. 

गुमसुम रात

 कुछ सहमें से पल हैं, और बस ये रात गुमसुम हैं,
ज़माने के शोरगुल में मेरे जज़्बात गुमसुम हैं,
तरनुम छेड़ती थी कभी घटाओं से मिलकर,
सावन की वो सुरीली बरसात गुमसुम है,
आँगन की वो कलियाँ, करीने से लगे गमले,
वो मिटटी के सैनिक, घुड़सवार, तीरंदाज़ के हमले,
हवाओं में बने किले, खेल खेल में खजाने मिले,
यादों के खजानो के, वो जवाहरात गुमसुम है,
रोटी की वह खुश्बू, माखन की नरमाई,
चटनी के चटखारे और गुड़ के गरमाई,
दलिए की दवात और खिड़की के सौगात गुमसुम है,
कुछ सहमे से पल, और बस ये रात गुमसुम है,
नुक्कड़ का वह जमघट, कभी संजीदा कभी नटखट,
चुटकलों के वह सिलसिले, ठहाकों की वह दुनिया,
तोता था मिटठू, मैना थी एक मुनिया,
मेरे मोहल्ले मके नुक्कड़ की अब हर बात गुमसुम हैं,
कुछ सहमें से पल हैं, और बस ये रात गुमसुम हैं,
ज़माने के शोरगुल में मेरे जज़्बात गुमसुम हैं

Friday, February 19, 2016

उस ठंडी ओस की महक ये हवाएं ले आएं शायद,
वह गुनगुनाती धुप की गर्माहट पहुंच जाए शायद,
उस कठोर पर्वत के पार कहीं घोंसला है मेरा,
शाम के ये बयार मेरा संदेशा ले जाये शायद. 
सर्द हवाओं ये एहसास दिलाती हैं,
की रिश्तों की गर्माहट कहीं खो गयी है,
पगडंडियों की नरम जमीं,
एक सख्त सड़क हो गयी है,
जिससे इंसान की तरह जानते थे हम,
उस आदमी से इंसानियत जुदा हो गयी है. 
चढ़ती थी उस मज़ार पर चादरें बेशुमार,
और बाहर बैठा एक फ़क़ीर सर्दी से मर गया.... 
बुलंदियों को पाने की खाहिश तो बहुत थी,
लेकिन,
दूसरों को रौंदने का हुनर कहाँ से लाता...?
मैं गिर न जाऊं कहीं, मुझको थोड़ा और सम्भालो तुम,
मैं प्यासा  ही रहा, दो बूँद हलक में और डालो तुम,
तुम पास हो मेरे, मुझको यकीन हमेशा से हैं,
पर दिल भरता नहीं, थोड़ा करीब और बुलालो तुम.

ये राहें मुश्किल तो हैं बहुत पर नामुमकिन नहीं ऐ  दोस्त,
बस मेरे साथ अपने भी कदम मिलो तुम,
इन् पग डंडियों के सारे कांटे चुन ही लेंगे हम,
बस ये ख्याल रखना, कोई फूल कहीं कुचल न डालो तुम.

मुझे जन्नत से काया वास्ता बस इतना ही काफी है,
की में तेरे कन्धों पे रखूँ अपना सर,
और मेरे हाथों में अपना हाथ डालो तुम. 
जिंदगी तू हंसी बड़ी दूर से नज़र आती हैं,
जितना पास जाओ उतना दूर नज़र आती हैं....
मुझे अपने दामन में जो चीज़ नहीं मिल पायी,
वह क्यों गैरों के पहलु में नज़र आती हैं,
तू चाहे जितना भी सितम कर मुझ पर,
मेरे दिल में अभी भी कुछ सब्र बाकी हैं,
मैंने कभी तुझसे कोई शिकवा नहीं किया ऐ  जिंदगी,
फिर तुझे क्यों मुझ में ही कमी  नज़र आती है,
तू मेरे ख़्वाबों को चाहे अलग कर दे मुझसे,
मेरी हक़ीक़त मेरे ख़्वाबों के करीब रहती है,
मुझे मालूम नहीं मुझसे तू चाहती क्या है,
तेरी तरफ से हर रोज़ नयी नयी मांग निकल आती है,
कभी बैठ मेरे साथ किसी शब-ए जिंदगी,
गम डुबो दे जनम में अपने
जब तक के सहर आती नहीं है.

Monday, February 15, 2016

जिंदगी: एक किताब

मेरी जिंदगी एक किताब है,
कभी येह एक दु:स्वपन हैं,
कभी एक हंसी सा ख़्वाब है।

पन्नो दर पन्नी जिंदगी,
पन्ने दर पन्ने परतें हैं,
कुछ उन्नति के हैं शिखर,
कुछ असफलताओं के गर्रते हैं,
कभी करती येह कुछ प्रश्न हैं,
कभी प्रश्नों का ये जवाब हैं,
मेरी जिंदगी एक किताब है.

कुछ स्वर्णिम से अध्याय हैं,
कछ जंग - लोह समाये हैं,
कभी ओस की नमी सी हैं,
कभी आसुओं का तालाब है,
मेरी जिंदगी एक किताब है. 

रेत में उकेरे हुए कुछ शब्द हैं,
कुछ धुँधली सी तस्वीरें हैं,
कभी सितारे मुहं फेरे हुए हैं,
कभी सौभाग्य के लकीरें हैं,
कभी मय से मेरा रिश्ता नहीं,
कभी जश्न है शराब का,
मेरी जिंदगी एक किताब है. 

कुछ पल है निराशाओं भरे,
कुछ आशा किरण छुपाये हुए,
कुछ अन्धकार से ढके हुए,
कुछ दीप - लौ समाये हुए,
राहों में कभी शूल हैं,
कभी कालीन-ऐ-गुलाब हैं,
मेरी जिंदगी एक किताब है,

कभी ये एक दुःस्वपन है 
कभी एक हसी सा ख़्वाब है. 
एक सुकून की तालाश में,
ना जाने कितनी बेचैनियाँ पाल ली हैं,

और लोग कहते हैं,
हम बड़े हो गए और जिंदगी संभाल ली हैं,

बचपन में सबसे अधिक पुछा गया एक सवाल,
- बड़े होकर क्या बनना है.....?

अब जाकर जवाब मिला,
- फिर से बच्चा बनना है....

इस नाचीज़ को कभी आज़मा के तो देखो,
खोते सिक्के को सरे बाज़ार चला कर तो देखो,
गौर से देखो कुछ तो खुभी नज़र आएगी हम में,
तुम निग़ाहों से ये पर्दा हटा कर तो देखो. 
चलो समय को वापिस मोड दें,
चलो फिर लोट चलें वहीँ पर,
उसी आसमान के तले उसी ज़मीन पर,
चलो फिर से उड़े गगन में और बातें करें हवा से,
चलो भीगे बारिश मैं, हाथ मिलाएं घटा से,
चलो वापिस चलें सभी फिर से,
चलो बन जाएँ अजनबी फिर 

जगजीत सिंह - ग़ज़ल - ब्यूटीफुल लाइन्स

 दिन कुछ ऐसा गुजारता है कोई,
जैसे एहसान उतरता है कोई,
आइना देख कर तसल्ली हुई,
हमको भी इस घर में जानता है कोई... 
उस चंद सिक्कों से कहाँ सुकूं मिलता है,
वोह खजाना-इ-कुबेर फखत चाहता है,
कुछ गिने चुने फल नहीं पसंद उसको,
वो तो पूरा दरख़्त चाहता है,
उसको मेरी जुबान पर यकीन कब हैं,
वोह कोरे कागज़ पर मेरे दस्तखत चाहता है. 
वह खत के पुर्जे उड़ा रहा था,
हवाओं का रुख दिखा रहा था
कच्चे घर और खेल का ठिकाना,
रिश्तों की हर एहमियत को निभाना,
वो सब दोस्तों का घर आना जाना,
जब भी मुकदर देखा पीछे तो आ जाता है रोना 

Saturday, February 13, 2016

क्षितिज के मस्तक पर सुनहरा सा ये बिंदु
नभ ललाट पर अरूणिमा का जैसे इक सिंधु
रात के दामन से होले से सरकता आरव
भौर की आहट पर चिड़ियों का कोलाहल
सोर किरणों की धरा पर जो हुई दस्तक
प्रभु के दर्शन से हुआ सहसा मैं नतमस्तक

Friday, February 12, 2016

Read Some Where

बहुत गहराई वाली बात है...
चाय की दुकानों और होटलों पर जो "छोटू" होते हैं,
वो अपने घर के "बड़े" होते हैं


दरख़तों की कतारों में यूं दीवानगी छाई,
परिंदे चहक उठे जैसे ही सबा आई,
बारिश की बूंदों की मोसिकी़ जरा सुनिये
बुलबुलों के तरन्नुम की जब सदा आई।


अधर कुमार  (०५-०९-२०१५)

सबा = पुर्वा=eastern wind
मौसिकी़ = संगीत = music
तरन्नुम = मधुर संगीत = music
सदा = अवाज = sound
जम गई बर्फ क्यों जज्बातों की हरारत पर,
जल गए हर्फ़ क्यों मामुली सी शरारत पर।
रिस रहा है वक्त क्यों जिंदगी की दरारों से,
फिसल रहा है रेत क्यों उंगलियों के किनारो से,
चढ़ गई धूल क्यों रिश्तों के गलियारों मे,
उग गए शूल क्यों चौक और चौबारों मे,
दर्द है, टीस है, शिकवा है तेरी रफ्तारों से
इतनी जल्दी है क्यों, जरा मिल तो ले अपने यारों से।
खुद की तलाश में खुद ही निकलना पड़ा मुझे,
शिकवा ये कि मैने खुदको खुद से ही खो दिया।
फलक की चाह मे, जमीं से दूर हुआ मैं
अपने किए फै़सलों से ही मजबूर हुआ मैं
मैं अपने घर का कभी इक रोशन चराग था
सितारों की इस दुनिया में बेनूर हुआ मैं।

सुहाना सा ख्वाब

दोबारा फिर वही कहानी कहो ना,
सुहाना सा वही ख्वाब बुनो ना।
गुनगनाओ गीत फिर वही मिलन के,
कुछ कह रहे हैं ये जज्बात, सुनो ना।
चुरा लो मुझको मुझ से एक बार फिर से,
शुरू से फिर एक शुरूआत करो ना।
जब कसम ले ही ली है साथ हंसने रोने की,
मैं भी मुस्कुराता हूं अब तुम भी हंसो ना।
दोबारा फिर वही कहानी कहो ना,
सुहाना सा वही ख्वाब बुनो ना।
रेत सी फिसलती जिंदगी,
कश्मकश से भरे दिन,
वक़्त की बदलती करवटें,
जरा सुस्ता तो लूं दो पलछिन

Beautiful Lines.......

दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी
~ LalChandFalak


ये सर्द रात, ये आवारगी, ये नींद का बोझ
हम अपने शहर मे होते तो घर गए होते
#‎उम्मीद_फ़ाज़ली‬

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नही मिलता ।
#‎उम्मीद_फ़ाज़ली‬

आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ
वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएँ
#‎उम्मीद_फ़ाज़ली‬ 



ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
दीवार पूछती है कि साया किधर गया
#‎उम्मीद_फ़ाज़ली‬


अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
रोज़ अपना ही तमाशा नहीं देखा जाता
#‎तारिक़_नईम‬


यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
#‎बशीर_बद्र‬



 शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता
#‎अमीर_मीनाई‬


साए लरज़ते रहते हैं शहरों की गलियों में
रहते थे इंसान जहाँ अब दहशत रहती है
~ अमजद इस्लाम अमजद


अंदर का ज़हर चूम लिया, धुल के आ गए
कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए।
~राहत इंदौरी


वक्त रहता नही कहीं टिक कर
इसकी आदत भी आदमी सी है।
शाम से आंख मे नमी सी है
आज फिर आपकी कमी सी है।
~Jagjit Singh

मेरी ख़्वाइश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जांऊ,
मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं।
~मुनव्वर राणा


रंज  की  जब  गुफ्तगू  होने लगी 
आप से तुम, तुम से तू होने लगी 
~ दाग दहलवी 


सर्द रातो की आहट सरसराती तो होगी,
धुंध भरी सुबहें कंपकपाती तो होगी,
सरसों के खेतों में पीली चादर ओढ़कर
ओस की बूंदे गुनगुनाती तो होगी।

Beautiful Poem by --निदा फ़ाज़ली--

चलो इस तरह से सजाएँ उसे
ये दुनिया हमारी तुम्हारी लगे।
हम लबों से कह न पाये उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है।
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है।
घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
कभी किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता
कही जमीं तो कही आसमां नही मिलता।


बसंत पंचमी

सरसों अपने यौवन पर मुस्कुराती है
पीली चादर खेतों मे लहलहाती है,
सर्द हवाऐं गर्म अहसास दे जाती है,
गुनगुनी धूप गालों को सहलाती है,
मीठे पीले चावल जब मां बनाती है,
ऐसे मेरे गांव मे बसंत पंचमी आती है।

चाँद अधूरा है

सुबह अधूरी है मौसम-ए-शाम अधूरा है
सूरज अधूरा है आसमान अधूरा है
सितारों के शहर में माँ तेरा ये चाँद अधूरा है|
ना पतंगे तीज की होंगी, ना झूलों के वो हिचकोले,
पत्थर के इस जंगल में, हर सावन अधूरा है|
मन अपना छोड़ आया हूँ मै अपने घर के आँगन में,
जो लेकर साथ आया हूँ वो सामान अधूरा है|
घने बरगद की छांव में वहां बेपरवाह गुजारे दिन
बचाये धुप से क्या कोई, यहाँ हर दामन अधूरा है|
कोपलें दो साथ लाया हूँ अपने घर की क्यारी की,
बिना माली के लेकिन ये मेरा बागान अधूरा है|
शिकन ना होती गर जो दिल ने ना यूं कहा होता,
रहे हमेशा बंद ये मुट्ठी, मेरा ये अरमान अधूरा है।
सुबह अधूरी है मौसम-ए-शाम अधूरा है
सूरज अधूरा है आसमान अधूरा है
सितारों के शहर में माँ तेरा ये चाँद अधूरा है|