Tuesday, February 23, 2016

गुमसुम रात

 कुछ सहमें से पल हैं, और बस ये रात गुमसुम हैं,
ज़माने के शोरगुल में मेरे जज़्बात गुमसुम हैं,
तरनुम छेड़ती थी कभी घटाओं से मिलकर,
सावन की वो सुरीली बरसात गुमसुम है,
आँगन की वो कलियाँ, करीने से लगे गमले,
वो मिटटी के सैनिक, घुड़सवार, तीरंदाज़ के हमले,
हवाओं में बने किले, खेल खेल में खजाने मिले,
यादों के खजानो के, वो जवाहरात गुमसुम है,
रोटी की वह खुश्बू, माखन की नरमाई,
चटनी के चटखारे और गुड़ के गरमाई,
दलिए की दवात और खिड़की के सौगात गुमसुम है,
कुछ सहमे से पल, और बस ये रात गुमसुम है,
नुक्कड़ का वह जमघट, कभी संजीदा कभी नटखट,
चुटकलों के वह सिलसिले, ठहाकों की वह दुनिया,
तोता था मिटठू, मैना थी एक मुनिया,
मेरे मोहल्ले मके नुक्कड़ की अब हर बात गुमसुम हैं,
कुछ सहमें से पल हैं, और बस ये रात गुमसुम हैं,
ज़माने के शोरगुल में मेरे जज़्बात गुमसुम हैं

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