Friday, October 5, 2007

अभी अभी तो पड़े थे खुशनुमा से ये कदम,
ज़मीन ने भी तो सूंघा था इन्हें सीने में भर,

एक लम्हे में बढ़े थे छू लेने को हम आसमान,
और दूजे ही लम्हे समां गया बाहों में वो मेरे,

सुनसान राहों पर रखे थे हमने ये कदम,
और कुछ लम्हों में ही एक कारवाँ सा बन गया,

अंगड़ायी ले वक़्त ने बदली करवटें कुछ ऐसे,
अहिस्ते से हमने उस आसमान को आज छू लिया,

मिचमिचायी सी ये आँखें खुलने की कोशिश में थी,
हाथों में भर इन्हें हम मल ही तो रहे थे,

आफताब की ज़ौ ने गले से हमे कुछ यूँ लगा लिया,
चूम कर अफाक ने एक नया सा आगाज़ भी कर दिया,

वक़्त ये सुहाना कुछ ऐसा बाहों में गुज़र गया,
पता भी ना चला कब ये हमें चूम कर खुद बिखर गया,

मंज़िल की तलाश में तो हम बस यूँ ही चले थे,
वक़्त कुछ ऐसा खुशनुमा सरपट सा गुज़र गया

पलकों को जैसे बंद कर बस एक बार झपकायी हो मैंने,
दूजे ही पल लो मंज़िल हमसे खुद रूबरू मिलने आ गयी ॥

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