Monday, October 1, 2007

फैला दुखों का एक अथाह समंदर,
दुनिया सार्री जैसे डूब गयी,
इसकी बाह्य सुन्दरता में,
बस कर दुनिया ये लीं हो गयी,

जा फंसा था में एक दिन,
निकलने की कोशिश में इससे,
हाथ पर मई तड़प चलाने लगा,
ऊपर आ थोडा सा में उतराने लगा,

किश्ती आयी एक नज़र करीब मुझे,
सुख साधनों से सुसज्जित तैरती,
कारवां लोगों का था सवार इसमे,
आनंदित से दिख रहे थे सभी नर और नारी,

हिला हिला हाथ मुझे बुलाने लगे,
आने को मुझे वो ललचाने लगा,
दुखों को अपने छिपा भीतर समेट,
बाहर से वो मुस्कुराने लगे,

दिल में आये कुछ विचार मेरे भी,
किश्ती में हो सवार सुख भोगने के,
सुखों के भीतर छिपा दर्द महसूस किया,
मुस्कुराते हुए भी उन्हें रोते हुए देखा,

कर अनदेखा उन्हें में छोड़ पीछे,
बढ़ चल कुछ और आगे मई तैरता हुआ,
सनाता सा दिख रह था चारों ओरे,
दुखों के कल के सिवा कुछ और ना दिखा मुझे,

दुबकी मैंने एक गहरी तभी लगा ली,
भीतर की दुनिया तब मेरे सामने आ गयी,
भाव्नाये कई थी तैरती डूबी वहाँ,
अहिस्ते अहिस्ते करीब वो मेरे आती गयीं,

तलहटी में उसकी उतरता मई गया,
कुछ सीपियों को मैंने पाय वहां,
खोल उन्हें देखा तो दंग राग गया,
अनंद का एक सुन्दर मोती मुझे मिल गया,

दुनिया की रीत समझ तब आयी,
दुखों के समंदर में जब दुबकी लगाई,
डूब कर जा लगा तलहटी में जब,]
सुखों के समंदर का मोती मिल गया,

इश्वर को कर महसूस मई लालायित हो उठा,
परे दुनिया के सुखों से महसूस कुछ किया,
सुकून एक शीतल सा मुझे मिल गया,
इश्वर को जैसे मैंने आज पा लिया

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