Wednesday, August 22, 2007

बिखर तो गया हूँ मोतीयों की तरह

बिखर तो गया हूँ मोतीयों की तरह,
फर्श पर पड़ा हूँ उठा ले तू ज़रा,
राह में तेरी मैं गर्दिश में पड़ा,
सूंघता हुआ उस सोंधी मिट्टी का ज़र्रा,
रख कदम तू कभी निकला था जिस राह पर
,कणों ने छुए थे तेरे वो सुन्दर कदम,
लिपट आज मैं इन कणों में सिमट जाऊँगा,
करता महसूस तेरे क़दमों का अहसास वो अनूठा,
इंतज़ार में मैं किसी ऐसे राही के पड़ा,
मिलने अगर कोई तुझसे इस राह से गुज़रा,
बन उसके क़दमों की गर्दिश लिपट जाऊँगा,
इसी बहाने कम से कम तेरे पास तो आऊंगा,
छोड़ तो गया है मुझको तू तनहा कुछ ऐसे,
ताक़त भी नहीं की खुद उठ के मैं चल दूं,
खुशबू के सहारे तेरी मैं क़दमों को रख दूँ,
थामे तेरी वो महकती डोर को उठ बढ़ चलूँ,
मगर हूँ बिखरा पड़ा फर्श पर कुछ मोतियों के जैसा,
कहाँ से लाऊँ वो हौसला उठ चलने का बता तू ज़रा,
गूँथी थी माला जो तूने मोतियों को पिरो कर,
डोर को तोड़ मोतियों को बिखेर तू खुद ही चल दिया,
तेरे खिंचते तारों से गिर मैं फिसलता चला गया,
बता तू ही अब कैसे पिरोउं मैं खुद को ज़रा,
बिखर तो गया हूँ मोतीयों की तरह,
फर्श पर पड़ा हूँ उठा ले तू ज़रा ॥

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