चांद को देखा,
एक अहसास सा हुआ...
क्यों है चांदनी इतनी शीतल,
एक अहसास सा हुआ...
देती रौशनी उस काली रात में,
सुर्य जब कहीं ग़मगीन हुआ,
अहसास इस बात का,
दिल की गहराइयों तक हुआ...
चांदनी से लिप्त चांद,
जैसे नहाया अभी अभी,
डूब कर उस उजली चांदनी में,
क्यों करता है एक गुमान अपने में,
एक अहसास सा हुआ...
श्वेत ठंडे बर्फ के गोलों सी,
चांदनी का अहसास सा हुआ...
समेटे हुए एक आसमा अपने आप में,
चांद का देती साथ,
उन रात की काली छठा में,
तारों के साथ मदमस्त रंगीनियाँ,
सुर्य भी जब छोड़ गाया,
उस नीले अम्बर को,
चांदनी का साथ उस चांद को,
एक अहसास सा हुआ...
रात की वो नशीले छठा,
सन्नाटा सा छाया चारों ओरे,
छोड़ गए साथ जब,
चांदनी ने उसका साथ तब दिया...
समुन्द्र में उठती लहरें,
निखरती चांदनी की छठा में,
करती एक शौर अजीब सा,
पुकारती जैसे उस चांद को,
choo लेने को बेताब चांद को,
एक अहसास सा हुआ...
छोड़ा साथ जब सभी ने,
चांदनी ने साथ उस वक़्त दिया...
देखता होऊं चन्दा की चांदनी को,
तो ये एक अहसास सा हुआ...
है क्यों इतनी कोमल...
है क्यों इतनी मधुर...
है क्यों इतनी शीतल...
है क्यों इतनी उजली...
है क्यों इतनी पवित्र...
एक अहसास सा हुआ...
चन्दा की चांदनी का,
एक अहसास सा हुआ…
Wednesday, August 22, 2007
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