Tuesday, August 16, 2016

उद्वेग भावनाओं का बढ़ता ही जा है
मंथन विचारों का बढ़ता ही जा रहा है
मंथन विचारों के गरल सारा अंदर का सभी
बाहर निकलता ही जा रहा है , होता जा रहा
सब कुछ खाली सा जैसे , तन का विकार सारा
मन से निकला जा रहा है , होता जा रहा निर्मल
तन और मन सभी , शरीर जैसे हवा में उड़ता जा रहा है
जाना चाहता हूँ जैसे पार क्षितिज के कहीं
खो कर वाह्य सभी बस तुझमें विलुप्त सा
होता जा रहा हूँ , छूटता जा रहा है नश्वर सभी
मैं तो जैसे ब्रम्ह होता जा रहा हूँ
नहीं चाहता निकलना इस अनुभूति से कभी
विलुप्त सा हो गया मैं , ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं
अब तो जीना चाहता हूँ भी बस इसी भ्रम में कि बस
ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं , ब्रम्ह सा होता जा रहा हूँ मैं


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