Sunday, September 30, 2007

बढ़ा दो क़दम

बढ़ा क़दम छू ले आसमान,
भर ले चांद दामन में तू आज,
नयी सवेरा लाया है फिर कुछ,
तेरे लिए संजोये अपने हाथ,
इंतज़ार है अब किसका तुझे,
बाहें फैलाये कर रह वो तेरा इंतज़ार,
हौसलों की है जरूरत ज़रा सी तुझे,
बढ़ा दे जो दो क़दम तू अहिस्ते से,
समेट लेगा वो तुझे बाहों में अपनी,
दुनिया भी होगी मुट्ठी में तेरी,
हटा ज़रा अब दुविधा के काले ये बादल,
बड़ा तो ज़रा दो क़दम चुने को उसे,
पा जाएगा दुनिया के वो अनमोल तू रतन,
धून्द्ता रह बैठे जिन्हे तू गौड में,
रह गया है फासला बस दो क़दम का,
तेरे और उसके दरमियान फिर ये दूरियां है क्यों,
डरता है क्यों बढाने से वो दो क़दम,
मुस्कुराते सब देख रहे हैं राह तो तेरी,
बस है फासला दो क़दम का बाकी,
तेरी वो मंज़िल भी तो देती आवाज़ है तुझे,
बुला रही वो भी गले लगाने को तुझे,
बस बढ़ा दो क़दम तू उसकी ओरे आज कुछ ऐसे,
डूब जाये वो तुझमे और मिट जाये तू उसमे,
मंज़िल का अक्स हो तुझमे और तू बन जाये मंज़िल अब उसकी...

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