Sunday, September 30, 2007

गुल

गुल खिला एक सुन्दर आंगन,
बिखेरता सुगंध भीनी भीनी,
महक कैसी वो मदहोश थे,
डूबा जिसमें सारा जग जीवन,

आंधी आयी तूफान आये,
गुल को ना था झुकना कहीँ,
लचक भरी क़मर से लहराता,
मुस्कुराता रह वो हंसी ख़ुशी,

पर गुल ने हिम्मत हारी कुछ ऐसे,
दे दिए वो अधिकार उन्हें,
था जहाँ अभाव इन्द्रियों का,
दिला पाती जो अहसास उन्हें,

दिल जब चाहा खेल गए,
दिल जब चाहा मसल गए,
गुल के क़द्र ना जानी उसने,
अधिकार दिए गुल ने जिन्हे,

ना थे ये बेबसी उसकी,
ना तो थी ये किस्मत,
था बस वक़्त का फेर कुछ ऐसा,
पहचान कहीँ कुछ गलत हुई थी,

रोया तो था गुलशन भर आंसू ,
गुल के दुःख को देख वो रोया,
फिर भी ना पहचाना गुल ने,
गुलशन था वो सच्चा प्रेमी,

तनहा यों रातों में अकेली,
आन्सो बहाया करती थी,
गुलशन भी तो साथ था उसके,
उसका हाथ थाम कभी ना क्यों रोई...

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